अजय सिंह
गुजरात के लोगों में एक खास तरह की जागरूकता आई है। यहां तक कि सभी लोग इस बात पर एक मत थे कि मोदी की जीत तो निश्चित है लेकिन सीट कितनी मिलेगी इस पर मत भिन्नता थी। सबका यही कहना था कि मोदी ने विकास किया है, इसलिए जीतना तो तय है। जो गुजरात पिछले 15 सालों से जा रहा है वह भी कहेगा कि वहां काम तो हुआ ही है। हां, विकास का मॉडल क्या हो यह बहस का मुद्दा हो सकता है। लेकिन विकास हुआ है इससे इनकार नहीं किया जा सकता
इस बार गुजरात चुनाव के दौरान मैंने भरूच के लिए निजामुद्दीन से ट्रेन पकड़ी। वहां मुझे मौलाना वस्तानवी से मिलने जाना था। इस ट्रेन में मुझे गुजरात के कुछ व्यापारी और खेती करने वाले किसान भी मिले। हवाई जहाज में सफर करते वक्त आपसे कोई बात नहीं करता, क्योंकि उनके पास समय नहीं होता। लेकिन ट्रेन में सफर करने वाले के पास समय होता है। इसलिए वह आपस में बात करते चलते हैं। ट्रेन खुलने के बाद एक सहयात्री से हमारी बातचीत शुरू हुई। मैंने अपना परिचय बताते हुए उन्हें कहा कि ‘मैं वहां चुनाव का माहौल देखने जा रहा हूं।’ इसपर उन्होंने जवाब दिया- ‘चुनाव का माहौल तो आप बेकार ही देखने जा रहे हैं। नरेन्द्र मोदी जीतेंगे।’ मुझे बात समझ में नहीं आई कि एक आम आदमी इस तरह क्यों कह रहा है तो मैंने उनसे पूछा कि ‘ऐसा क्यों कह रहे हैं आप?’ तो उनका जवाब था-‘और वहां कोई है ही नहीं। सब चोर हैं। आप ही बताएं मोदी के मुकाबले कौन है वहां? मोदी के बारे में अचानक मिले इस प्रतिक्रिया से मैं चाैंका। क्योंकि गुजरात में लगभग 11 साल सरकार चलाने वाले नरेन्द्र मोदी के बारे में इस तरह का जवाब तीन-चार सहयात्रियों से मिला। फिर मैंने सोचा कि हो सकता है कि यह एक खास वर्ग का नजरिया हो। क्योंकि मैं टेªन के एसी डिब्बे में सफर कर रहा था। इसलिए मैंने सोचा कि हो सकता है यह पैसे वाले तबके का सोचना हो।
इसके बाद मैं भरूच स्टेशन पर उतरा। वहां के स्थानीय टैक्सी वाले, गेेस्ट हाउस वाले से भी इस बाबत पूछा। सबका जवाब कमोबेस इसी तरह का था। उसके बाद मैं पास के एक मुस्लिम बहुल इलाके में गया। वहां किसी ने कहा कि अहमद भाई के एक दोस्त हैं, तो फिर मैं उनके यहां गया। उनका एक पेट्रोल पंप था। वहां कुछ लोग बैठे हुए थे। मैं उनसे फिर चुनाव के बारे में बातें करने लगा। वे लोग 2002 के दंगों के बारे में बात करने लगे। जो हुआ वह ठीक नहीं हुआ। इस मामले में मोदी दोषी हैं। इसके बाद मैंने पूछा कि यहां जो स्थानीय स्तर पर काम होता है उसके बारे में बताएं। सरकार का रवैया इन कामों के प्रति कैसा है? इस पर उन लोगों ने छूटते ही कहा कि ‘साहब आप चाहे जो भी कहिए लेकिन मोदी काम तो कर ही रहा है।’ यह प्रतिक्रिया एक मुस्लिम वर्ग के लोगों की थी। वह भी अहमद पटेल के नजदीकी लोगों की। मेरे लिए यह दूसरी बार चौंकने का मौका था।
उसके बाद मैंने आदिवासी क्षेत्र की ओर का रूख किया। वहां मैंने दूध के कलेक्शन सेंटर के पास कुछ लोगों से पूछताछ की। उन लोगों की भी कमोबेस इसी तरह की प्रतिक्रिया थी कि ‘मोदी ने काम तो किया ही है।’ इस दौरान जो एक बात उभरकर आई वह यह कि गुजरात के लोगों में एक खास तरह की जागरूकता आई है। यहां तक कि सभी लोग इस बात पर एक मत थे कि मोदी की जीत तो निश्चित है लेकिन सीट कितनी मिलेगी इस पर मत भिन्नता थी। सबका यही कहना था कि मोदी ने विकास किया है, इसलिए जीतना तो तय है। जो गुजरात पिछले 15 सालों से जा रहा है वह भी कहेगा कि वहां काम तो हुआ ही है। हां, विकास का मॉडल क्या हो यह बहस का मुद्दा हो सकता है। लेकिन विकास हुआ है इससे इनकार नहीं किया जा सकता। दूसरी तरफ एक खास वर्ग में मोदी को लेकर नाराजगी भी है। लेकिन यह विकास को लेकर नहीं है। इस नाराजगी की एक खास वजह है। गुजरात में राजनीतिक बहस या कहें कि मोदी की आलोचना भी मोदी की ही भाषा में होती है। इसलिए वहां मोदी की काट था ही नहीं।
चुनाव परिणाम के बाद यह साफ हो गया। हां, कुछ लोग यह कह सकते हैं कि मोदी को 115 सीट ही मिला। 130 मिलती तो हम मानते। अब उनके न मानने से संवैधानिकता पर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। अब अच्छे बहुमत से मोदी की गुजरात में सरकार बन गई है।
गुजरात में मोदी के तीसरी बार लौटने के पीछे की वजह साफ है। आज गुजरात की जनता विकास के नशे में है। वहां पिछले 10 सालों से कोई दंगा-फसाद नहीं हुआ है। व्यापार वहां खूब फल-फूल रहा है। धन उपार्जन के नए-नए तरीके वहां मिल रहे हैं। रियल स्टेट का क्षेत्र वहां खूब विकास कर रहा है। गुजरात के गांवों में भी जमीन की कीमत में वृद्धि हुई है। जिसके पास वहां जमीन है, वह खुश है। जिसके पास जमीन नहीं है वह नाराज हो सकता है। हां, वहां अन्य राज्यों की तरह बेरोजगारी अभी भी है। लेकिन इसकी अलग वजह है। अराजकता जैसी अन्य जगहें दिखाई देती है वैसी वहां नहीं दिखाई देती। इसलिए मोदी की जीत को गुजरात की सामाजिक संरचना के संदर्भ में देखनी चाहिए।
जहां तक गुजरात में दंगों की बात है तो गुजरात में दंगों का एक इतिहास रहा है। वहां 1985 में छह महीने दंगे हुए थे। उस समय माधव सिंह बहुत बड़े वोट के साथ (149 सीट लेकर) आए थे। लेकिन दंगों के बाद उनको हटना पड़ा था। दंगों के बाद वोटों का ध्रुवीकरण वहां होता रहा है। वैसे भी गुजरात में जातिगत और धार्मिक स्तर पर वोटों का ध्रुवीकरण होता रहा है। 2002 के दंगे के बाद यह ध्रुवीकरण और ज्यादा हो गया है। यह गुजरात के सामाजिक समीकरण का हिस्सा रहा है। लेकिन इस बार का चुनाव इस मायने में भिन्न था कि इस बार मुस्लिमों में वह सांप्रदायिक जिद्दीपन नहीं था। वे मोदी का खुलकर समर्थन कर रहे थे। मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में वोटों का आंकड़ा देखें तो यह स्पष्ट हो जाएगा। वहीं जातिगत आधार पर भी देखंे तो केशुभाई पटेल उस तरह नहीं चल पाए जिस तरह का उनका आधार था। गुजराती समाज व्यापार प्रधान है। वहां अगर व्यवसाय ठीक चल रहा है और आम आदमी को कोई परेशानी नहीं हो रही है तो बाकी सभी चीजें गौण हो जाती है। वैसे इस बार का चुनाव तो विकास के नाम पर ही लड़ा गया है। बाकी लोगांे ने भी मोदी के विकास को नीचा दिखाने का प्रयास किया। यह अलग बात है कि गुजरात की जनता को मोदी का विकास मॉडल पसंद आया।
गुजरात के अंतिम दौर में जिस तरह कांग्रेस ने अपना पूरा जोर लगाया, उससे यही लगता है कि वह हारी हुई सेना की तरह बर्ताव कर रही थी। चुनाव परिणाम देखें तो जिस तरह गुजरात कांग्रेस के सारे दिग्गज नेता हारे उससे यह लगता है कि वे वास्तविकता से कोसों दूर थे। और अपने आकाओं (सोनिया, राहुल) को भी बरगला रहे थे। सच कहें तोे गुजरात में कांग्रेस बिना किसी नेता और बिना किसी मुद्दे के लड़ रही थी। हालांकि कांग्रेस को पहले से दो अधिक सीटें मिली है। लेकिन इसकी अलग वजह है। यहां यह महत्वपूर्ण है कि कांग्रेस का जनाधार वहां कमजोर नहीं हुआ है। केशुभाई की इमेज गुजरात में अच्छी है। गुजरात में कृषि के स्तर पर व्यापक परिवर्तन उन्हीं के समय में हुआ था। इसलिए पटेल समुदाय ही नहीं भाजपा के लोगों में भी एक अलग तरह का आदर भाव है। केशुभाई का खुल कर विरोध में आना मोदी के लिए परेशानी तो पैदा किया है। लेकिन केशुभाई को भी उनकी जाति का पूरा साथ नहीं मिला। कारण मोदी से लोगों का मोह भंग नहीं हुआ था। मोदी एक होशियार राजनेता हैं। वे इस बात को अच्छी तरह जानते हैं कि गुजरात के वर्चस्व वाले पटेल समुदाय को यदि यह संदेश गया कि मोदी केशुभाई पटेल को हरा कर आगे बढ़े हैं तो इसका उनकी राजनीति पर बहुत गलत असर पड़ेगा। इसलिए जीत के तुरंत बाद वे केशुभाई से मिलने गए। केशुभाई के पैर छूना, आशीर्वाद लेना और मिठाई खिलाना... ये वे केशुभाई के लिए नहीं, बल्कि गुजरात में उनकी सरकार ढंग से चले इसके लिए कर रहे थे। जहां तक मोदी का भाजपा और आरएसएस के लोगों के विरोध की बात है तो यह वास्तविकता थी। यह विरोध मोदी के कार्यशैली की समस्या है। क्योंकि मोदी जनता से सीधा संवाद करते हैं वे बिचौलिये को पसंद नहीं करते।
जहां तक पहले के चुनाव और 2012 के चुनाव की बात है तो 2002 और 2007 के विधानसभा चुनाव में गुजरात में मोदी के खिलाफ एक अलग प्रकार का विरोध दिखाई पड़ता था। लेकिन 2012 में मोदी ने अपने जरिये किए गए विकास के बल पर उस विरोध को न्यूट्रलाइज कर लिया। तभी इस चुनाव में कोई सांप्रदायिक मुद्दा नहीं था। वहीं गुजरात में वोटिंग का प्रतिशत बढ़ना (लगभग 70 प्रतिशत) भी मोदी के वास्तविक जीत को दर्शाता है।
(लेखक गवर्नेंस नाउ के प्रबंध संपादक हैं।)
इसके बाद मैं भरूच स्टेशन पर उतरा। वहां के स्थानीय टैक्सी वाले, गेेस्ट हाउस वाले से भी इस बाबत पूछा। सबका जवाब कमोबेस इसी तरह का था। उसके बाद मैं पास के एक मुस्लिम बहुल इलाके में गया। वहां किसी ने कहा कि अहमद भाई के एक दोस्त हैं, तो फिर मैं उनके यहां गया। उनका एक पेट्रोल पंप था। वहां कुछ लोग बैठे हुए थे। मैं उनसे फिर चुनाव के बारे में बातें करने लगा। वे लोग 2002 के दंगों के बारे में बात करने लगे। जो हुआ वह ठीक नहीं हुआ। इस मामले में मोदी दोषी हैं। इसके बाद मैंने पूछा कि यहां जो स्थानीय स्तर पर काम होता है उसके बारे में बताएं। सरकार का रवैया इन कामों के प्रति कैसा है? इस पर उन लोगों ने छूटते ही कहा कि ‘साहब आप चाहे जो भी कहिए लेकिन मोदी काम तो कर ही रहा है।’ यह प्रतिक्रिया एक मुस्लिम वर्ग के लोगों की थी। वह भी अहमद पटेल के नजदीकी लोगों की। मेरे लिए यह दूसरी बार चौंकने का मौका था।
उसके बाद मैंने आदिवासी क्षेत्र की ओर का रूख किया। वहां मैंने दूध के कलेक्शन सेंटर के पास कुछ लोगों से पूछताछ की। उन लोगों की भी कमोबेस इसी तरह की प्रतिक्रिया थी कि ‘मोदी ने काम तो किया ही है।’ इस दौरान जो एक बात उभरकर आई वह यह कि गुजरात के लोगों में एक खास तरह की जागरूकता आई है। यहां तक कि सभी लोग इस बात पर एक मत थे कि मोदी की जीत तो निश्चित है लेकिन सीट कितनी मिलेगी इस पर मत भिन्नता थी। सबका यही कहना था कि मोदी ने विकास किया है, इसलिए जीतना तो तय है। जो गुजरात पिछले 15 सालों से जा रहा है वह भी कहेगा कि वहां काम तो हुआ ही है। हां, विकास का मॉडल क्या हो यह बहस का मुद्दा हो सकता है। लेकिन विकास हुआ है इससे इनकार नहीं किया जा सकता। दूसरी तरफ एक खास वर्ग में मोदी को लेकर नाराजगी भी है। लेकिन यह विकास को लेकर नहीं है। इस नाराजगी की एक खास वजह है। गुजरात में राजनीतिक बहस या कहें कि मोदी की आलोचना भी मोदी की ही भाषा में होती है। इसलिए वहां मोदी की काट था ही नहीं।
चुनाव परिणाम के बाद यह साफ हो गया। हां, कुछ लोग यह कह सकते हैं कि मोदी को 115 सीट ही मिला। 130 मिलती तो हम मानते। अब उनके न मानने से संवैधानिकता पर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। अब अच्छे बहुमत से मोदी की गुजरात में सरकार बन गई है।
गुजरात में मोदी के तीसरी बार लौटने के पीछे की वजह साफ है। आज गुजरात की जनता विकास के नशे में है। वहां पिछले 10 सालों से कोई दंगा-फसाद नहीं हुआ है। व्यापार वहां खूब फल-फूल रहा है। धन उपार्जन के नए-नए तरीके वहां मिल रहे हैं। रियल स्टेट का क्षेत्र वहां खूब विकास कर रहा है। गुजरात के गांवों में भी जमीन की कीमत में वृद्धि हुई है। जिसके पास वहां जमीन है, वह खुश है। जिसके पास जमीन नहीं है वह नाराज हो सकता है। हां, वहां अन्य राज्यों की तरह बेरोजगारी अभी भी है। लेकिन इसकी अलग वजह है। अराजकता जैसी अन्य जगहें दिखाई देती है वैसी वहां नहीं दिखाई देती। इसलिए मोदी की जीत को गुजरात की सामाजिक संरचना के संदर्भ में देखनी चाहिए।
जहां तक गुजरात में दंगों की बात है तो गुजरात में दंगों का एक इतिहास रहा है। वहां 1985 में छह महीने दंगे हुए थे। उस समय माधव सिंह बहुत बड़े वोट के साथ (149 सीट लेकर) आए थे। लेकिन दंगों के बाद उनको हटना पड़ा था। दंगों के बाद वोटों का ध्रुवीकरण वहां होता रहा है। वैसे भी गुजरात में जातिगत और धार्मिक स्तर पर वोटों का ध्रुवीकरण होता रहा है। 2002 के दंगे के बाद यह ध्रुवीकरण और ज्यादा हो गया है। यह गुजरात के सामाजिक समीकरण का हिस्सा रहा है। लेकिन इस बार का चुनाव इस मायने में भिन्न था कि इस बार मुस्लिमों में वह सांप्रदायिक जिद्दीपन नहीं था। वे मोदी का खुलकर समर्थन कर रहे थे। मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में वोटों का आंकड़ा देखें तो यह स्पष्ट हो जाएगा। वहीं जातिगत आधार पर भी देखंे तो केशुभाई पटेल उस तरह नहीं चल पाए जिस तरह का उनका आधार था। गुजराती समाज व्यापार प्रधान है। वहां अगर व्यवसाय ठीक चल रहा है और आम आदमी को कोई परेशानी नहीं हो रही है तो बाकी सभी चीजें गौण हो जाती है। वैसे इस बार का चुनाव तो विकास के नाम पर ही लड़ा गया है। बाकी लोगांे ने भी मोदी के विकास को नीचा दिखाने का प्रयास किया। यह अलग बात है कि गुजरात की जनता को मोदी का विकास मॉडल पसंद आया।
गुजरात के अंतिम दौर में जिस तरह कांग्रेस ने अपना पूरा जोर लगाया, उससे यही लगता है कि वह हारी हुई सेना की तरह बर्ताव कर रही थी। चुनाव परिणाम देखें तो जिस तरह गुजरात कांग्रेस के सारे दिग्गज नेता हारे उससे यह लगता है कि वे वास्तविकता से कोसों दूर थे। और अपने आकाओं (सोनिया, राहुल) को भी बरगला रहे थे। सच कहें तोे गुजरात में कांग्रेस बिना किसी नेता और बिना किसी मुद्दे के लड़ रही थी। हालांकि कांग्रेस को पहले से दो अधिक सीटें मिली है। लेकिन इसकी अलग वजह है। यहां यह महत्वपूर्ण है कि कांग्रेस का जनाधार वहां कमजोर नहीं हुआ है। केशुभाई की इमेज गुजरात में अच्छी है। गुजरात में कृषि के स्तर पर व्यापक परिवर्तन उन्हीं के समय में हुआ था। इसलिए पटेल समुदाय ही नहीं भाजपा के लोगों में भी एक अलग तरह का आदर भाव है। केशुभाई का खुल कर विरोध में आना मोदी के लिए परेशानी तो पैदा किया है। लेकिन केशुभाई को भी उनकी जाति का पूरा साथ नहीं मिला। कारण मोदी से लोगों का मोह भंग नहीं हुआ था। मोदी एक होशियार राजनेता हैं। वे इस बात को अच्छी तरह जानते हैं कि गुजरात के वर्चस्व वाले पटेल समुदाय को यदि यह संदेश गया कि मोदी केशुभाई पटेल को हरा कर आगे बढ़े हैं तो इसका उनकी राजनीति पर बहुत गलत असर पड़ेगा। इसलिए जीत के तुरंत बाद वे केशुभाई से मिलने गए। केशुभाई के पैर छूना, आशीर्वाद लेना और मिठाई खिलाना... ये वे केशुभाई के लिए नहीं, बल्कि गुजरात में उनकी सरकार ढंग से चले इसके लिए कर रहे थे। जहां तक मोदी का भाजपा और आरएसएस के लोगों के विरोध की बात है तो यह वास्तविकता थी। यह विरोध मोदी के कार्यशैली की समस्या है। क्योंकि मोदी जनता से सीधा संवाद करते हैं वे बिचौलिये को पसंद नहीं करते।
जहां तक पहले के चुनाव और 2012 के चुनाव की बात है तो 2002 और 2007 के विधानसभा चुनाव में गुजरात में मोदी के खिलाफ एक अलग प्रकार का विरोध दिखाई पड़ता था। लेकिन 2012 में मोदी ने अपने जरिये किए गए विकास के बल पर उस विरोध को न्यूट्रलाइज कर लिया। तभी इस चुनाव में कोई सांप्रदायिक मुद्दा नहीं था। वहीं गुजरात में वोटिंग का प्रतिशत बढ़ना (लगभग 70 प्रतिशत) भी मोदी के वास्तविक जीत को दर्शाता है।
(लेखक गवर्नेंस नाउ के प्रबंध संपादक हैं।)