शुक्रवार, 4 जनवरी 2013

विकास के नशे में गुजरात की जनता

अजय सिंह

गुजरात के लोगों में एक खास तरह की जागरूकता आई है। यहां तक कि सभी लोग इस बात पर एक मत थे कि मोदी की जीत तो निश्चित है लेकिन सीट कितनी मिलेगी इस पर मत भिन्नता थी। सबका यही कहना था कि मोदी ने विकास किया है, इसलिए जीतना तो तय है। जो गुजरात पिछले 15 सालों से जा रहा है वह भी कहेगा कि वहां काम तो हुआ ही है। हां, विकास का मॉडल क्या हो यह बहस का मुद्दा हो सकता है। लेकिन विकास हुआ है इससे इनकार नहीं किया जा सकता

 इस बार गुजरात चुनाव के दौरान मैंने भरूच के लिए निजामुद्दीन से ट्रेन पकड़ी। वहां मुझे मौलाना वस्तानवी से मिलने जाना था। इस ट्रेन में मुझे गुजरात के कुछ व्यापारी और खेती करने वाले किसान भी मिले। हवाई जहाज में सफर करते वक्त आपसे कोई बात नहीं करता, क्योंकि उनके पास समय नहीं होता। लेकिन ट्रेन में सफर करने वाले के पास समय होता है। इसलिए वह आपस में बात करते चलते हैं। ट्रेन खुलने के बाद एक सहयात्री से हमारी बातचीत शुरू हुई। मैंने अपना परिचय बताते हुए उन्हें कहा कि ‘मैं वहां चुनाव का माहौल देखने जा रहा हूं।’ इसपर उन्होंने जवाब दिया- ‘चुनाव का माहौल तो आप बेकार ही देखने जा रहे हैं। नरेन्द्र मोदी जीतेंगे।’ मुझे बात समझ में नहीं आई कि एक आम आदमी इस तरह क्यों कह रहा है तो मैंने उनसे पूछा कि ‘ऐसा क्यों कह रहे हैं आप?’ तो उनका जवाब था-‘और वहां कोई है ही नहीं। सब चोर हैं। आप ही बताएं मोदी के मुकाबले कौन है वहां? मोदी के बारे में अचानक मिले इस प्रतिक्रिया से मैं चाैंका। क्योंकि गुजरात में लगभग 11 साल सरकार चलाने वाले नरेन्द्र मोदी के बारे में इस तरह का जवाब तीन-चार सहयात्रियों से मिला। फिर मैंने सोचा कि हो सकता है कि यह एक खास वर्ग का नजरिया हो। क्योंकि मैं टेªन के एसी डिब्बे में सफर कर रहा था। इसलिए मैंने सोचा कि हो सकता है यह पैसे वाले तबके का सोचना हो।
इसके बाद मैं भरूच स्टेशन पर उतरा। वहां के स्थानीय टैक्सी वाले, गेेस्ट हाउस वाले से भी इस बाबत पूछा। सबका जवाब कमोबेस इसी तरह का था। उसके बाद मैं पास के एक मुस्लिम बहुल इलाके में गया। वहां किसी ने कहा कि अहमद भाई के एक दोस्त हैं, तो फिर मैं उनके यहां गया। उनका एक पेट्रोल पंप था। वहां कुछ लोग बैठे हुए थे। मैं उनसे फिर चुनाव के बारे में बातें करने लगा। वे लोग 2002 के दंगों के बारे में बात करने लगे। जो हुआ वह ठीक नहीं हुआ। इस मामले में मोदी दोषी हैं। इसके बाद मैंने पूछा कि यहां जो स्थानीय स्तर पर काम होता है उसके बारे में बताएं। सरकार का रवैया इन कामों के प्रति कैसा है? इस पर उन लोगों ने छूटते ही कहा कि ‘साहब आप चाहे जो भी कहिए लेकिन मोदी काम तो कर ही रहा है।’ यह प्रतिक्रिया एक मुस्लिम वर्ग के लोगों की थी। वह भी अहमद पटेल के नजदीकी लोगों की। मेरे लिए यह दूसरी बार चौंकने का मौका था।
उसके बाद मैंने आदिवासी क्षेत्र की ओर का रूख किया। वहां मैंने दूध के कलेक्शन सेंटर के पास कुछ लोगों से पूछताछ की। उन लोगों की भी कमोबेस इसी तरह की प्रतिक्रिया थी कि ‘मोदी ने काम तो किया ही है।’ इस दौरान जो एक बात उभरकर आई वह यह कि गुजरात के लोगों में एक खास तरह की जागरूकता आई है। यहां तक कि सभी लोग इस बात पर एक मत थे कि मोदी की जीत तो निश्चित है लेकिन सीट कितनी मिलेगी इस पर मत भिन्नता थी। सबका यही कहना था कि मोदी ने विकास किया है, इसलिए जीतना तो तय है। जो गुजरात पिछले 15 सालों से जा रहा है वह भी कहेगा कि वहां काम तो हुआ ही है। हां, विकास का मॉडल क्या हो यह बहस का मुद्दा हो सकता है। लेकिन विकास हुआ है इससे इनकार नहीं किया जा सकता। दूसरी तरफ एक खास वर्ग में मोदी को लेकर नाराजगी भी है। लेकिन यह विकास को लेकर नहीं है। इस नाराजगी की एक खास वजह है। गुजरात में राजनीतिक बहस या कहें कि मोदी की आलोचना भी मोदी की ही भाषा में होती है। इसलिए वहां मोदी की काट था ही नहीं।
चुनाव परिणाम के बाद यह साफ हो गया। हां, कुछ लोग यह कह सकते हैं कि मोदी को 115 सीट ही मिला। 130 मिलती तो हम मानते। अब उनके न मानने से संवैधानिकता पर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। अब अच्छे बहुमत से मोदी की गुजरात में सरकार बन गई है।   
गुजरात में मोदी के तीसरी बार लौटने के पीछे की वजह साफ है। आज गुजरात की जनता विकास के नशे में है। वहां पिछले 10 सालों से कोई दंगा-फसाद नहीं हुआ है। व्यापार वहां खूब फल-फूल रहा है। धन उपार्जन के नए-नए तरीके वहां मिल रहे हैं। रियल स्टेट का क्षेत्र वहां खूब विकास कर रहा है। गुजरात के गांवों में भी जमीन की कीमत में वृद्धि हुई है। जिसके पास वहां जमीन है, वह खुश है। जिसके पास जमीन नहीं है वह नाराज हो सकता है। हां, वहां अन्य राज्यों की तरह बेरोजगारी अभी भी है। लेकिन इसकी अलग वजह है। अराजकता जैसी अन्य जगहें दिखाई देती है वैसी वहां नहीं दिखाई देती। इसलिए मोदी की जीत को गुजरात की सामाजिक संरचना के संदर्भ में देखनी चाहिए।
जहां तक गुजरात में दंगों की बात है तो गुजरात में दंगों का एक इतिहास रहा है। वहां 1985 में छह महीने दंगे हुए थे। उस समय माधव सिंह बहुत बड़े वोट के साथ (149 सीट लेकर) आए थे। लेकिन दंगों के बाद उनको हटना पड़ा था। दंगों के बाद वोटों का ध्रुवीकरण वहां होता रहा है। वैसे भी गुजरात में जातिगत और धार्मिक स्तर पर वोटों का ध्रुवीकरण होता रहा है। 2002 के दंगे के बाद यह ध्रुवीकरण और ज्यादा हो गया है। यह  गुजरात के सामाजिक समीकरण का हिस्सा रहा है। लेकिन इस बार का चुनाव इस मायने में भिन्न था कि इस बार मुस्लिमों में वह सांप्रदायिक जिद्दीपन नहीं था। वे मोदी का खुलकर समर्थन कर रहे थे। मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में वोटों का आंकड़ा देखें तो यह स्पष्ट हो जाएगा। वहीं जातिगत आधार पर भी देखंे तो केशुभाई पटेल उस तरह नहीं चल पाए जिस तरह का उनका आधार था। गुजराती समाज व्यापार प्रधान है। वहां अगर व्यवसाय ठीक चल रहा है और आम आदमी को कोई परेशानी नहीं हो रही है तो बाकी सभी चीजें गौण हो जाती है। वैसे इस बार का चुनाव तो विकास के नाम पर ही लड़ा गया है। बाकी लोगांे ने भी मोदी के विकास को नीचा दिखाने का प्रयास किया। यह अलग बात है कि गुजरात की जनता को मोदी का विकास मॉडल पसंद आया।
गुजरात के अंतिम दौर में जिस तरह कांग्रेस ने अपना पूरा जोर लगाया, उससे यही लगता है कि वह हारी हुई सेना की तरह बर्ताव कर रही थी। चुनाव परिणाम देखें तो जिस तरह गुजरात कांग्रेस के सारे दिग्गज नेता हारे उससे यह लगता है कि वे वास्तविकता से कोसों दूर थे। और अपने आकाओं (सोनिया, राहुल) को भी बरगला रहे थे। सच कहें तोे गुजरात में कांग्रेस बिना किसी नेता और बिना किसी मुद्दे के लड़ रही थी। हालांकि कांग्रेस को पहले से दो अधिक सीटें मिली है। लेकिन इसकी अलग वजह है। यहां यह महत्वपूर्ण है कि कांग्रेस का जनाधार वहां कमजोर नहीं हुआ है।  केशुभाई की इमेज  गुजरात में अच्छी है। गुजरात में कृषि के स्तर पर व्यापक परिवर्तन उन्हीं के समय में हुआ था। इसलिए पटेल समुदाय ही नहीं भाजपा के लोगों में भी एक अलग तरह का आदर भाव है। केशुभाई का खुल कर विरोध में आना मोदी के लिए परेशानी तो पैदा किया है। लेकिन केशुभाई को भी उनकी जाति का पूरा साथ नहीं मिला। कारण मोदी से लोगों का मोह भंग नहीं हुआ था। मोदी एक होशियार राजनेता हैं। वे इस बात को अच्छी तरह जानते हैं कि गुजरात के वर्चस्व वाले पटेल समुदाय को यदि यह संदेश गया कि मोदी केशुभाई पटेल को हरा कर आगे बढ़े हैं तो इसका उनकी राजनीति पर बहुत गलत असर पड़ेगा। इसलिए  जीत के तुरंत बाद वे केशुभाई से मिलने गए। केशुभाई के पैर छूना, आशीर्वाद लेना और मिठाई खिलाना... ये वे केशुभाई के लिए नहीं, बल्कि गुजरात में उनकी सरकार ढंग से चले इसके लिए कर रहे थे। जहां तक मोदी का भाजपा और आरएसएस के लोगों के विरोध की बात है तो यह वास्तविकता थी। यह विरोध मोदी के कार्यशैली की समस्या है। क्योंकि मोदी जनता से सीधा संवाद करते हैं वे बिचौलिये को पसंद नहीं करते।
जहां तक पहले के चुनाव और 2012 के चुनाव की बात है तो 2002 और 2007 के विधानसभा चुनाव में गुजरात में मोदी के खिलाफ एक अलग प्रकार का विरोध दिखाई पड़ता था। लेकिन  2012 में मोदी ने अपने जरिये किए गए विकास के बल पर उस विरोध को न्यूट्रलाइज कर लिया। तभी इस चुनाव में कोई सांप्रदायिक मुद्दा नहीं था। वहीं गुजरात में वोटिंग का प्रतिशत बढ़ना (लगभग 70 प्रतिशत) भी मोदी के वास्तविक जीत को दर्शाता है।
                                      (लेखक गवर्नेंस नाउ के प्रबंध संपादक हैं।)

चाय की दुकान से मुख्यमंत्री भवन तक

संजीव कुमार

केवल मोदी कहने से नरेंद्र मोदी की पहचान हो जाती है। बच्चा-बच्चा उन्हें पहचान लेता है। इसकी अपनी-अपनी वजह है। भारतीय राजनीति में जमाने बाद कोई राजनेता इस तरह विरोधियों और समर्थकों के बीच समान रूप से जाना जाता है। गुजरात  में लगातार तीसरी बार भाजपा को अपने दम पर जीत दिलाने वाले 62 वर्षीय मोदी आज भाजपा में प्रधानमंत्री के उम्मीदवार बनने की क्षमता रखते हैं तो इसके पीछे एक पृष्ठभूमि है

 मोदी 17 सितंबर, 1950 को अहमदाबाद से सौ किलोमीटर दूर बड़नगर के एक साधारण परिवार में पैदा हुए थे। पिता दामोदरदास मूलचंद मोदी और माता इराबेन मोदी को कहां मालूम था कि आगे यह शिशु क्या कमाल करने वाला है। छह भाई-बहनों में मोदी तीसरे नंबर पर हैं। वे पूर्णतः शाकाहारी हैं। और दिन की शुरूआत योग से करते हैं। किताब पढ़ने और घूमने के शौकीन मोदी ने गुजरात यूनिवर्सिटी से राजनीतिक विज्ञान में एमए किया है। इनकी जाति घांची है। इस जाति का परंपरागत काम तेल निकालने (तेली) का है। नरेंद्र मोदी के सहपाठी रहे डॉ. सुधीर जोशी बताते हैं ‘‘बड़नगर रेलवे स्टेशन पर मोदी के पिता एक चाय की दुकान चलाते थे। तब रेलवे लाइन के दूसरी तरफ एक स्कूल था जिसमें नरेंद्र मोदी पढ़ते थे। और चाय की दुकान पर अपने पिता का हाथ भी बटाते थे। स्कूल की घंटी बजने पर लाइन पार करके स्कूल की कक्षा में चले जाते थे।’’
आरएसएस से जुड़ने के बाबत नरेंद्र मोंदी के बड़े भाई सोम भाई कहते हैं, ‘‘1958 में जब नरेंद्र मोदी आठ साल के थे तो बड़नगर की शाखा में गए थे। वहीं वे लक्ष्मणराव इनामदार के संपर्क में आए।’’ दूसरी तरफ बड़नगर में मोदी के शिक्षक रहे प्रह्लाद पटेल बताते हैं कि ‘‘हम नरेंद्र मोदी को एक साधारण छात्र के रूप में जानते हैं। लेकिन वे वाद-विवाद प्रतियोगिता में खूब जोर-शोर से हिस्सा लिया करते थे।’’ हलांकि मोदी के साथी रहे डॉ. सुधीर जोशी बताते हैं कि मोदी बचपन से ही निडर थे। वे बड़नगर झील में मगरमच्छ होने के बावजूद उसमें जाया करते थे।
मोदी के अनुसार, 1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान उन्होंने एक युवा स्वयंसेवक के रूप में रेलवे स्टेशनों पर सैनिकों की  सेवा की थी। मोदी के बड़े भाई सोम भाई बताते हैं कि नरेंद्र मोदी ने एक बार नमक और तेल खाना छोड़ दिया तो परिवार वालों को लगा कि मोदी संन्यासी होने वाला है। इसी समय मोदी की पहले मंगनी और फिर 13 साल की उम्र में शादी कर दी गई। लेकिन 18 साल की उम्र में मोदी हिमालय की तरफ निकल पड़े। इसलिए इनकी पत्नी जशोदा बेन का गौना नहीं हुआ। वैसे मोदी स्कूल शिक्षिका जसोदा बेन से अपनी इस कथित शादी के बारे में कुछ नहीं कहते। सभी आधिकारिक दस्तावेजों में वह वैवाहिक स्थिति के कॉलम को खाली छोड़ देते हैं। ऐसा कहा जाता है कि शादी के विरोध में ही नरेंद्र मोदी अज्ञात वास (हरिद्वार-ऋषिकेश) पर चले गए थे। इस दौरान यात्रा के स्रोत मोदी खुद ही हैं। इसके बारे में उनके परिवार के लोगों को भी कोई विशेष जानकारी नहीं है। फिर दो साल बाद अचानक जब मोदी वापस आए तो वे अहमदाबाद शहर के बस स्टैंड के पास अपने चाचा की कैंटीन में हाथ बंटाते थे। और थोड़े दिनों बाद यहीं गीता मंदिर के निकट उन्होंने अपनी चाय की दुकान खोल ली। जीवन के इसी मोड़ पर मोदी फिर से आरएसएस से जुड़ने लगे। ऐसा एक वरिष्ठ आरएसएस प्रचारक का कहना है जो उन दिनों अहमदाबाद में रह रहे थे। सुबह की शाखा के बाद कुछ आरएसएस प्रचारक मोदी की दुकान पर चाय पीते थे। यहां मोदी बड़नगर की अपनी आरएसएस पृष्ठभूमि की वजह से लोगों को प्रभावित करने में सफल रहे। और फिर उन्होंने अपनी चाय की दुकान बंद कर दी और गुजरात आरएसएस मुख्यालय में सहायक के तौर पर काम करने लगे।
इस बाबत खुद नरेंद्र मोदी ने अपने आधिकारिक जीवनीकार एनबी कामत कोे बताया ‘‘जब वकील साहब (लक्ष्मणराव इनामदार) ने मुझे अपने साथ जोड़ने के लिए बुलाया तो उस समय 10-12 लोग गुजरात के हेडगेवार भवन, आरएसएस मुख्यालय में रहते थे। उस समय मैं आरएसएस मुख्यालय में काम करता था। मैंने यह तय किया कि यही वह जगह है जिससे मैं ताल्लुक रखता हूं। उन दिनों मेरी दिनचर्या सुबह प्रचारकों के लिए चाय और नास्ते बनाने से शुरू होती थी। उसके बाद पूरी इमारत की सफाई करनी होती थी, जिसमें आठ-नौ कमरे थे। उसके बाद अपने और वकील साहब के कपड़े धोता था। ऐसा कम से कम एक साल तक चलता रहा। इस दौरान मैं  बहुत सारे लोगों से मिला।’’
उसके बाद मोदी अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद से जुड़े। उन दिनों देश में इमरजेंसी लगी थी, गुजरात में बाबूभाई की सरकार थी। गुजरात में इमरजेंसी के खिलाफ अभियान चलाने वालों में नरेंद्र मोदी भी थे। इस दौरान वह लालकृष्ण आडवाणी के संपर्क में आए। आडवाणी उस समय जनसंघ के बड़े नेता थे। आडवाणी ने मोदी की सांगठनिक क्षमताओं को पहचाना। आडवाणी ने उन्हें हमेशा बढ़ावा दिया और हर संकट में साथ खड़े रहे। मोदी भी आडवाणी को समय-समय पर प्रभावित करते रहे। 1987 के नगर निकाय चुनावों में भाजपा की शानदार जीत के पीछे मोदी ही थे। उस समय 25 वर्षीय मोदी संघ प्रचारक थे। फिर 1987 में मोदी को गुजरात भाजपा का संगठन सचिव बनाया गया। वहां उन्होंने संगठन को अपना बहुमूल्य आठ साल दिया। 1987 से 1995 के बीच गुजरात में जो भी काम हुआ है संगठन के स्तर पर इसका श्रेय मोदी को जाता है। इस दौरान मोदी ने गुजरात में केशुभाई पटेल और शंकर सिंह बाघेला की तिकड़ी ने साथ मिलकर ‘न्याय यात्रा’ और ‘लोकशक्ति रथयात्रा’ भी निकाला। 1990 में जब आडवाणी की सोमनाथ यात्रा और 1991 में मुरली मनोहर जोशी की ‘एकता यात्रा’ केे संयोजन का काम नरेंद्र मोदी के जिम्मे था। इस काम मोदी ने बखूबी संभाला और केशुभाई पटेल और शंकर सिंह बाघेला को पीछे छोड़ते हुए मोदी दिल्ली आ गए। पार्टी में उन्हें सबसे कम उम्र में राष्ट्रीय सचिव बनाया गया। गुजरात के बाद राष्ट्रीय स्तर पर इन्होंने गोविंदाचार्य के साथ मिलकर संगठन का काम किया। दिल्ली में संगठन का काम करते हुए भाजपा की हिमाचल प्रदेश ईकाई को भी संभाला। इनके काम को देखते हुए इन्हें 1998 में संगठन का राष्ट्रीय सचिव बनाया गया।
दूसरी तरफ  गुजरात में सूखे, तूफानों और विनाशकारी भूकंप ने केशुभाई की लोकप्रियता को नुकसान पहुंचाया। वहीं भाजपा उपचुनाव और नगर निकाय के चुनाव हारने लगी। तभी मोदी ने पर्दे के पीछे केशुभाई के खिलाफ बगावत की जमीन तैयार की। मोदी ने चिंतित आडवाणी को यह भरोसा दिलाया कि वह केशुभाई के सामने सबसे बेहतर विकल्प हैं। 7 अक्टूबर, 2001 को भाजपा ने मोदी को गुजरात के मुख्यमंत्री बनाकर भेजा। कहा जाता है कि इसमें संघ के मदनदास देवी की भी बड़ी भूमिका थी। मोदी ने सबसे पहले वहां से संजय जोशी का बोरिया-बिस्तर समेटा।
27 फरवरी, 2002 को गोधरा कांड हुआ। इसके बाद गुजरात में बड़े पैमाने पर दंगे भड़क उठे। दंगों के दौरान मोदी सरकार की भूमिका आज भी संदेह के घेरे में है। इसका जवाब आज भी उन्हें देना है। लेकिन गुजरात में बढ़ती लोकप्रियता और आडवाणी के आशीर्वाद की वजह से वह अपनी गद्दी बचाने में कामयाब रहे। दंगे के बाद मोदी के अंदर का नेता पूरी तरह से जागा। उन्होंने गुजरात गौरव यात्रा कर गुजराती अस्मिता का आह्वान किया। चुनाव से पहले उनकी इस कवायद ने दिसंबर 2002 में हुए विधानसभा चुनाव में मोदी ने भाजपा को (128 सीट) भारी जीत दिलाई।
2003 से वे ‘वाइब्रेंट गुजरात’ की तरफ बढ़े। साथ ही वे ‘गुजरात सिद्धि’ यात्रा पर निकले। वहीं सरकारी अधिकारियों की कार्यक्षमता में सुधार के लिए ‘कर्मयोगी सिद्धांत’ लाए। स्वास्थ्य और शिक्षा जैसे सामाजिक मानदंडों पर खराब प्रदर्शन के बावजूद ‘वाइब्रेंट गुजरात’ सम्मेलनों ने मोदी ब्रांड बनकर उभरे।
जब पश्चिम मोदी को नजरअंदाज कर रहा था तो उन्होंने पूरब का रुख किया। यह मोदी ब्रांड का ही जलवा था कि 2007 में जापान ‘वाइब्रेंट गुजरात’ सम्मेलन में साझेदार बना। तबतक गुजरात में 2007 का चुनाव आ गया। इसमें कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने मोदी को मौत का सौदागर कह दिया। इसके बाद मोदी ने कांग्रेस पर आक्रामक होते हुए आतंकवाद के मुद्दे को आगे बढ़ाया। और एक बार फिर गुजरात में 117 सीटों पर जीत दर्ज कर अपनी सरकार बनाई। वे 2009 के लोकसभा चुनाव में भाजपा के स्टार प्रचारक के रूप में उभरे। विदेशों और व्यापारिक घरानों का विश्वास जीता। यह उनकी व्यापारिक सोच का ही परिचायक है।
हिंदुत्व की राजनीति करने वाले मोदी ने अचानक 17 सितंबर, 2011 को मुसलमानों की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ाने के लिए सद्भावना मिशन की शुरुआत की। मोदी दूरदर्शी नेता के रूप में जाने जाते हैं। मोदी यह जानते थे कि उनकी हिंदुत्व वाली छवि एनडीए में शामिल दलों को दूर कर सकती है। लेकिन जब मुसलमानों को टिकट देने की बात आई तो उन्होंने एक भी टिकट मुसलमान को नहीं दिया। इसके बावजूद उनके विकास मॉडल ने एक बार फिर 2012 के विधानसभा चुनाव में हैट्रिक लगाकर भाजपा को जीत दिलाई। जानकारों की राय है कि अब मोदी की निगाह दिल्ली की गद्दी पर है। मोदी होशियार और स्वप्नदर्शी व्यक्ति के रूप में भी जाने जाते हैं। मोदी इस बात को अच्छी तरह जानते हैं कि अगर दिल्ली की गद्दी पर काबिज होना है तो 2014 का लोकसभा चुनाव सबसे उचित समय है। क्योंकि मैदान खुला है।

7 साल में चले ढाई कोस!

संजीव कुमार

बीते 24 नवंबर को बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने अपनी सरकार की दूसरे कार्यकाल के दो साल पूरा होने पर 96 पृष्ठों का एक रिपोर्ट कार्ड पेश किया। इस रिपोर्ट कार्ड में उनके शासन की उपलब्धि व चुनौतियां दर्ज हैं। इस मौके पर उन्होंने ‘मुख्यमंत्री ग्राम संपर्क योजना’ का एलान किया तो बिहार को विशेष राज्य का दर्जा देने की भी मांग की। उनके अनुसार बेशक बिहार आगे बढ़ रहा है लेकिन इस गति से भी राष्ट्रीय औसत के करीब पहुंचने में 25 वर्ष लग जाएगा। इतना लंबा इंतजार कौन करेगा?

 मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने राज्य के ढाई सौ की आबादी वाले बसावट को पक्की सड़क से जोड़ने के लिए ‘मुख्यमंत्री ग्राम संपर्क योजना’ एलान किया है। वे अपनी सरकार की दूसरी पारी के दो साल पूरा पर रिपोर्ट कार्ड पेश कर रहे थे। वहीं भ्रष्टाचार के खिलाफ ‘जीरो टालरेंस’ की बात दोहराते हुए मुख्यमंत्री ने कहा कि भ्रष्टाचारियों के खिलाफ हमारी जंग जारी रहेगी। उनका दावा है कि ‘गुणवत्ता के साथ हर मोर्चे पर काम हो रहा है। और इसकी लगातार मॉनिटरिंग भी हो रही है।’
इस मौके पर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने अपनी सरकार का रिपोर्ट कार्ड पेश करते हुए एक बड़ा ही राजनीतिक बयान दिया है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने कहा कि बिहार में अगर बिजली की स्थिति नहीं सुधरी तो वे लोगों के पास वोट मांगने नहीं जाएंगे। नीतीश कुमार का यह बयान सुनने में तो बहुत अच्छा लगता है। लेकिन यह बयान हकीकत से कोसों दूर है। क्योंकि कोई राजनेता यह कहे कि वह अपने वादे के अनुसार काम नहीं कर पाया तो वोट मांगने नहीं जाएगा। कम से कम भारतीय राजनीति के अबतक के इतिहास में तो ऐसा देखने को नहीं मिला है। ऐसे में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का यह बयान कोरी लफ्फाजी ही लगता है।
गौरतलब है कि बिहार पर सात साल शासन करने वाले नीतीश कुमार को अपनी आलोचना बर्दाश्त नहीं है। लेकिन अपनी ही सरकार की वार्षिक रिपोर्ट पेश करते हुए उन्होंने अपने ही शासन की विफलताएं गिनाई। नीतीश कुमार ने आत्मालोचना के स्वर में कहा कि ‘‘जहांतक इंफ्रास्ट्रक्चर की बात है तो सड़कों वगैरह में कुछ सुधार जरूर हुआ है। हालांकि इस क्षेत्र में भी उतना सुधार नहीं हुआ है जितना कि होना चाहिए।’’ बिहार की जनता ने जिस तरह नीतीश कुमार को भारी बहुमत से सत्ता में पहुंचाया और हाल ही में नीतीश सरकार ने अपने शासन का सातवां साल पूरा किया है लेकिन अभी तक उन्होंने जनता की अपेक्षाओं के अनुरूप काम नहीं किया है। यदि उन्हें लगता है कि इंफ्रास्ट्रक्चर (सड़क और बिजली) की वजह से बिहार का विकास रुका हुआ है, तो सवाल यह उठता है कि उन्होंने इन सात सालों में क्या किया?
जहां तक इंफ्रास्ट्रक्चर की बात है तो सड़कों वगैरह में काफी सुधार हुआ है। लेकिन आज भी छोटे बसावट (टोले) पगडंडी और बांस के चचरी के युग में जी रहे हैं। यहां तक कि राजधानी पटना में बांस और लकड़ी के पुल बने हैं जो कुछ लोगों के चढ़ने पर ही ध्वस्त हो जाते हैं और बड़ी दुर्घटना हो जाती है। वहीं बिजली की बात करें तो कांटी और कलगाव के पॉवर स्टेशनों का सुधार हुआ है जिससे बिजली उत्पादन कुछ बढ़ा है। लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं है कि बिहार की एक बड़ी आबादी आज भी लालटेन और ढिबरी युग में जीने को मजबूर है।
कमोबेस यही हालत बिहार में कृषि, स्वास्थ्य और शिक्षा जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों की भी है। हलांकि मुख्यमंत्री ने रिपोर्ट कार्ड पेश करते हुए कृषि रोड मैप, शिक्षा, स्वास्थ्य, ऊर्जा, उद्योग सहित विभिन्न क्षेत्रों में हो रहे काम का हवाला देते हुए कहा कि अब बिहार के नाम की चर्चा देश-दुनिया में है। बिहार के विकास मॉडल की सब तारीफ कर रहे हैं। बिहार, अब शोध का विषय बन गया है। यह अलग बात है कि आज भी कृषि की हालत नहीं सुधरी है और छोटे किसान व मजदूर रोजगार के लिए पलायन कर रहे हैं। हां, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि प्रवासी मजदूर जो बिहार से बाहर जाते थे, उनकी संख्या में कमी जरूर आई है। लेकिन इसके पीछे सबसे बड़ी वजह महात्मा गांधी ग्रामीण विकास योजना (मनरेगा) में लोगों को अपने ही राज्य में काम मिलना है। और यह केंद्र सरकार की योजना है।
पत्रकारों के एक सवाल बिहार की गरीबी के बाबत उनका कहना था कि गरीबी के आंकड़े जुटाने के फार्मूले में परिवर्तन की जरूरत है। जबतक उनकी संख्या का सही आकलन नहीं होगा, लोग गरीबी रेखा से ऊपर कैसे उठेंगे। लेकिन बिहार की समस्याओं का समाधान तब तक नहीं होगा जब तक बिहार में बड़े पैमाने पर भूमि सुधार को लागू नहीं किया जाएगा। गौरतलब है कि इसके लिए सरकार ने डी. बंद्योपाध्याय कमेटी बनाई थी, उस कमेटी ने सरकार को एक रिपोर्ट भी दी है जिसे सरकार ने ठंडे बस्ते में डाल रखा है। इस मामले में सरकार को राजनीतिक इच्छाशक्ति दिखाने की जरूरत है।
वहीं उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी ने कहा कि न्याय के साथ समेकित व समावेशी विकास हमारी प्राथमिकता है। इस लक्ष्य को हासिल करने में जो भी चुनौतियां सामने आएंगी, हम उसे अवसर में बदलेंगे। हम किसी को शिकायत करने का मौका नहीं देंगे। नई पीढ़ी के लिए कोई तगादा नहीं छोड़ना चाहते हैं। उनके अनुसार बिहार, विकास के मामले में भी देश को नई राह दिखा रहा है।
बहरहाल, नीतीश कुमार अपनी सातवीं रिपोर्ट कार्ड में अपने सरकार की उपलब्धियां गिनाकर खुद ही अपनी पीठ थपथपा रहे हों, लेकिन बिहार के हर समुदाय के लोगों को उनसे बड़ी अपेक्षाएं थीं, लेकिन सरकार के अबतक के कामकाज से सभी लोगों को बेहद निराशा हुई है। नीतीश सरकार के कामकाज को देखकर यही कहा जा सकता है- ‘सात साल में चले ढाई कोस!’

‘‘यह रिपोर्ट कार्ड बिहार की जनता के साथ धोखा है। मुख्यमंत्री कागजी घोड़े दौड़ा रहे हैं। जमीन पर कहीं बदलाव दिखाई नहीं दे रहा। जगह-जगह हो रहे विरोध प्रदर्शन से साफ है कि उन्होंने जनता का समर्थन खो दिया है। मुख्यमंत्री ने अपने दूसरे कार्यकाल में ‘सुशासन के कार्यक्रम’ नामक पुस्तिका जारी की थी। इसमें 185 संकल्पों का जिक्र था। इसमें से एक भी संकल्प अबतक पूरा नहीं हो पाया है।’’
                                          -रामविलास पासवान, लोजपा अध्यक्ष

‘‘रिपोर्ट कार्ड में फिजूल की बातें हैं। विकास व अधिकार यात्रा के नाम पर मुख्यमंत्री ने लोगों को बेवकूफ बनाने का भरपूर प्रयास किया है। जनता अब उनकी बातों को अच्छी तरह से समझने लगी है। राज्य में शिक्षा व विधि व्यवस्था चौपट हो गई है। मुख्यमंत्री को इस रिपोर्ट कार्ड में माफी मांगनी चाहिए थी कि राज्य में महिलाओं के साथ दुष्कर्म व कमजोर तबके के साथ अत्याचार हो रहा है।’’
                                             -लालू प्रसाद यादव, राजद अध्यक्ष

‘‘नीतीश सरकार का रिपोर्ट कार्ड झूठ का पुलिंदा है। पिछले सात वर्षों में बिहार में एक भी निवेश नहीं हुआ। एक मेगावाट बिजली का उत्पादन शुरू नहीं हो सका है। राज्य में अपहरण, बलात्कार, हत्या, लूट एवं डकैती की घटनाओं में काफी वृद्धि हुई है। बिहार में स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार की बात करना हास्यास्पद है। राज्य में जो विकास के कार्यक्रम चल रहे हैं, वे केंद्र प्रायोजित योजनाओं से है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार फर्जी आंकड़ा देकर जनता को दिग्भ्रमित कर रहे है।’’
                               -चौधरी महबूब अली कैसर, कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष
 
                      क्या है मुख्यमंत्री ग्राम संपर्क योजना
इस योजना से मुख्यमंत्री ने राज्य के ढाई सौ की आबादी वाले बसावट (टोला) को पक्की सड़क से जोड़ने का एलान किया है। ‘मुख्यमंत्री ग्राम संपर्क योजना’ नाम के इस योजना पर 23 हजार 881 करोड़ रुपये खर्च होंगे। एक लाख 41 हजार बसावट पक्की सड़क से जुड़ेंगे। अगले पांच साल में 34 हजार 116 किलोमीटर सड़क बनेगी। इस योजना के अंतर्गत निर्माण कार्य इसी वर्ष से शुरू होगा।

परंपरा ही प्रगति का आधार

संजीव कुमार

बीते 2-3 नवंबर को साहित्य अकादेमी ने वरिष्ठ आलोचक रामविलास शर्मा की जन्म शताब्दी के उपलक्ष्य में एक दो दिवसीय संगोष्ठी का आयोजन किया था। इस संगोष्ठी के चार सत्रों में विद्वानों ने रामविलास शर्मा के व्यक्तित्व व कृतित्व पर अपने-अपने विचार प्रस्तुत किए।

‘‘वर्तमान हिन्दी समीक्षा का जो आज प्रगतिशील स्वरूप है उसका निर्माण रामविलास शर्मा के अथक संघर्षों से ही बना है।’’ ये बातें आलोचक शिवकुमार मिश्र ने कही। वे साहित्य अकादेमी के तत्वावधान में आयोजित रामविलास शर्मा जन्मशतवार्षिकी संगोष्ठी में उद्घाटन भाषण देते हुए ये बातें कही। आगे उन्होंने कहा कि रामविलास शर्मा ने परंपरा को प्रगति से जोड़ा और उसे प्रतिगामी तत्वों से अलग किया। उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा कि परंपरा के बिना प्रगति संभव नहीं है। रामविलास जी ने अपने जीवन में जितनी चुनौतियां और विरोधों को झेला उससे ज्यादा चुनौतियां हिन्दी समाज के आगे उछाली भी। वे साहित्य, समाज, राजनीति, जाति, भाषाविज्ञान या चाहे कोई भी क्षेत्र हो वे तर्कपूर्ण ढंग से अपनी बात रखते हैं। आलोचना के क्षेत्र में आचार्य रामचंद्र शुक्ल के बाद यदि किसी का नाम लिया जा सकता है तो वे रामविलास शर्मा ही हैं। साथ ही उन्होंने इस बात पर क्षोभ प्रकट किया कि उनके तर्कों पर उदासीनता बरती गई और उनको जाने-बूझे बिना ही खारिज करने की होड़-सी लग गई। हमें उनका सामना तथ्यों और तर्कों के साथ करना होगा जो हम नहीं कर पा रहे हैं।
प्रो. अजय तिवारी ने संगोष्ठी में बीज भाषण देते हुए कहा कि रामविलास जी का इतिहास बोध तथ्यों और तर्कों से बना था। उन्होंने हमारे सामने एक वैकल्पिक इतिहास बोध प्रस्तुत किया। उनका सारा लेखन जनता के हित को आगे बढ़ाने वाले तत्वों को सामने लाने के लिए है। प्रो. तिवारी ने गांधी और रामविलास जी की तुलना करते हुए कहा कि आधुनिक हिंदी मानस के निर्माण करने वालों में पहले व्यक्ति महात्मा गांधी हैं तो दूसरे व्यक्ति रामविलास शर्मा हैं। दोनों का इतिहास बोध तथ्यों और तर्कों पर आधारित है और दोनों ने धर्म को संस्कृति से अलग करके देखा और समझा है।
उद्घाटन सत्र की अध्यक्षता करते हुए साहित्य अकादेमी के कार्यकारी अध्यक्ष विश्वनाथ प्रसाद तिवारी ने कहा कि मैं दो लेखकों का सर्वाधिक सम्मान करता हंू और वह है हजारी प्रसाद द्विवेदी और रामविलास शर्मा। इन दोनों लेखकों ने जितनी कालजयी कृतियां हिन्दी समाज को दीं और किसी ने नहीं दीं। रामविलास जी के साथ अपने एक साक्षात्कार का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि वे मार्क्सवाद को परंपरा का निषेध नहीं बल्कि उसे परंपरा का विकास मानते थे। उनकी आलोचना का मुख्य तत्व साम्राज्यवाद का विरोध था। उनका जीवन ऋषि तुल्य साधक का था। वहीं उनके पुत्र विजय मोहन शर्मा ने कहा कि लेखकों के जन्मशती को कोई स्थायी रूप देने के लिए हिन्दी साहित्यकारों को आगे आना चाहिए।

‘हिन्दी आलोचना और रामविलास शर्मा’ विशयक पहले सत्र की अध्यक्षता करते हुए विश्वनाथ त्रिपाठी ने कहा कि जातीयता और साम्राज्यवाद के विरोध को हिन्दी साहित्य के भाव बोध का अभिन्न अंग बनाने का काम रामविलास शर्मा ने किया। वह केवल एक आलोचक ही नहीं बल्कि पूरे भारतीय समाज की चिंताओं पर विचार करने वाले चिंतक थे। आगे उन्होंने कहा कि करुण रस की जैसी व्याख्या रामविलास शर्मा ने किया वैसा अन्यत्र दुर्लभ है। साथ ही उन्होंने पहली बार इस तथ्य की महत्ता को स्थापित किया कि कोई भी रचना अपने समय और समाज से संदर्भित होती है।
वरिष्ठ कवि अरुण कमल ने कहा कि रामविलास जी ऐसे आलोचक थे जिनसे असहमत होना असंभव है। उन्होंने हिन्दी समीक्षा को नया चेहरा दिया। राजेन्द्र कुमार ने शर्माजी के महत्व को रेखांकित करते हुए कहा कि उन्होंने आलोचना शब्द को नया अर्थ विस्तार दिया है। वहीं रवि श्रीवास्तव ने कहा कि परंपरा का मूल्यांकन और जातीयता की अवधारणा उनके आलोचना के मूल में है।
संगोष्ठी के द्वितीय सत्र में ‘भारतीयता की अवधारणा और हिन्दी जाति’ विषय पर रमेश कुंतल ‘मेघ’ की अध्यक्षता में रवि भूषण, कृष्णदत्त पालीवाल और अजय बिसारिया ने अपने विचार रखें।
संगोष्ठी के दूसरे दिन और तीसरे सत्र में ‘हिंदी नवजागरण का स्वरूप’ विषय पर बोलते हुए कर्मेन्दु शिशिर ने कहा कि नवजागरण का सबसे उपयुक्त माहौल अभी है। बदलने के लिए सोचना ही नवजागरण का सही समय है। आगे उन्होंने कहा कि हिंदी का नवजागरण और हिंदी क्षेत्र का नवजागरण दोनों अलग बातें हैं। साथ ही उन्होंने इतिहासकार केएम पन्निकर से सवाल पूछते हुए कहा कि अगर हिंदी प्रदेश सोया हुआ था तो यह हिंदी प्रदेश स्वतंत्रता का मुख्य केंद्र कैसे हो गया। वहीं वरिष्ठ साहित्यकार शंभुनाथ ने स्वाधीनता आंदोलन को नवजागरण का हिस्सा बताते हुए कहा कि नवजागरण ने लोक चित्त को बड़ा बनाया। रामविलास शर्मा ने किसानों की समस्याओं को उभारकर उसे नवजागरण से जोड़ा। इसी सत्र में श्रीभगवान सिंह और सत्यदेव त्रिपाठी ने भी अपने-अपने आलेख पढ़े।
सत्र की अध्यक्षता करते हुए नित्यानंद तिवारी ने कहा कि लोकजागरण और नवजागरण के क्या सूत्र हो सकते हैं रामविलास जी ने हमें यह रास्ता दिखाया। उन्होंने यह बताया कि नवजागरण के केंद्र में 1857 का सिपाही विद्रोह है और इसके लिए राजनीतिक बोध आवश्यक है। साथ ही प्रो. तिवारी ने कहा कि आंदोलनों से जुड़े बिना साहित्य, जीवन और समाज का साहित्य नहीं हो सकता।
संगोष्ठी के चतुर्थ सत्र में ‘भारतीय समाज और भाषा का प्रश्न’ विषय पर बोलते हुए श्रीप्रकाश शुक्ल ने कहा कि रामविलास जी के जातीय चिंतन को भाषा से अलग करके नहीं देखा जा सकता। उन्होंने अपने भाषा संबंधी चिंतन से भाषायी सियासत के औपनिवेशिक मानसिकता को ध्वस्त किया था। वहीं दिलीप सिंह ने कहा कि रामविलास जी की रचना में इतिहास बोध, भूगोल, समाज और व्यक्ति आपस में गुंथे हुए हैं। इस सत्र में राजेंद्र प्रसाद पांडेय और गरिमा श्रीवास्तव ने अपने आलेख पढ़े। सत्र की अध्यक्षता करते हुए वरिष्ठ साहित्यकार भगवान सिंह ने कहा कि समस्या के बाद चिंतन करना रामविलास का काम था। इसलिए वे चिंतक विद्वान की श्रेणी में आते हैं।


लोकसभा चुनाव के मद्देनजर मंत्रिमंडल में फेरबदल

संजीव कुमार 

यूपीए 2 कैबिनेट की यह तीसरी और आखिरी फेरबदल आगामी लोकसभा चुनाव के मद्देनजर किया गया है। यह फेरबदल इस मायने में अलग है कि इसमें कांग्रेस ने अपने घटक दलों को कोई तवज्जो नहीं दी। वहीं कुछ नए चेहरों को मंत्रिमंडल में पहली बार शामिल किया है।  

 मनमोहन सरकार ने अपने मंत्रिमंडल में भारी फेरबदल किया है। सत्ता के गलियारों में इसकी चर्चा काफी दिनों से थी। इस बदलाव से यह साफ हो गया कि इसमें प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की नहीं चली।   इस फेरबल में राहुल गांधी की भूमिका सबसे अहम मानी जा रही थी। यह कहा जा रहा था कि आगामी लोकसभा चुनाव से पहले इन फेरबदल से कांग्रेस पार्टी पूरे देश में राहुल गांधी को अपने नेता के रूप में प्रोजेक्ट करेगी। लेकिन मंत्रिमंडल में हुए फेरबल कुछ और ही कहानी कहता है। ऐसा लगता है कि इस मंत्रिमंडल विस्तार में सिफ दस जनपथ की चली। यानी सोनिया गांधी की चली।
हां इसमें राहुल गांधी का असर सिर्फ इतना हुआ कि उन्होंने अपने युवा साथियों की पदोन्नति करवाई। इसमें सचिन पायलट, ज्योतिरादित्य सिंधिया, मनीष तिवारी और पल्लम राजू जैसे युवा नेता शामिल हैं। ऐसा लगता है कि राहुल गांधी की युवा टीम अगली पारी के लिए तैयार हो रही है। लेकिन इस फेरबदल में राहुल अपनी टीम के कुछ और साथियों को शामिल करवा पाते तो उनके लिए बेहतर होता। राहुल काफी दिनों से युवा कांग्रेस के साथ काम कर रहे हैं इसलिए उम्मीद की जा रही थी कि युवा कांग्रेस से कुछ नए चेहरों को शामिल किया जा सकता है। इनमें मीनाक्षी नटराजन, प्रदीप मांझी,  ज्योति मिर्धा आदि का नाम शामिल था लेकिन इन लोगों को इस बार मौका नहीं मिला।
इसके अलावा इस फेरबदल से एक संदेश जो साफ दिखाई देता है वह यह है कि कांग्रेस आंध्र प्रदेश, पश्चिम बंगाल और पंजाब को खासा महत्व दिया है। साथ ही राजस्थान, कर्नाटक और केरल के नेताओं को भागीदारी मिली है। आंध्र प्रदेश में तेलंगाना और वाईएसआर कांग्रेस के गठन के बाद कांग्रेस की मुश्किलें काफी बढ़ गई हैं इसलिए यहां से 6 सांसदों को मंत्रिमंडल में जगह मिली है।
आध्र प्रदेश दक्षिण भारत का अकेला ऐसा राज्य है जहां कांग्रेस की अपने दम पर सरकार है। हालांकि कांग्रेस ने चिरंजीवी की पार्टी को अपने विलय करा लिया लेकिन उनकी लोकप्रियता का कितना फायदा कांग्रेस को होगा यह तो समय ही बताएगा। एक बात साफ है कि कांग्रेस ने चिरंजीवी से विलय के समय जो वादा किया था, उन्हें मंत्रिमंडल में शामिल कर उसे अब पूरा किया है।
वहीं पश्चिम बंगाल से तीन नेताओं को मंत्रिमंडल में शामिल कर कांग्रेस ने बंगाल में ममता बनर्जी से अलग चलने का संकेत दिया है।   यही वजह है कि ममता बनर्जी के धुर विरोधी दीपा दासमुंशी और अधीर रंजन चौधरी को मंत्रिमंडल में शामिल किया गया है।
इस फेरबदल में महाराष्ट्र को तरजीह नहीं दिया गया है।  विलासराव देशमुख के निधन और मुकुल वासनिक के इस्तीफे के बाद यहां से किसी भी नेता को शामिल नहीं किया जाना महाराष्ट्र की उपेक्षा है। ऐसा लगता है कि सुशील कुमार शिंदे को लोकसभा का नेता बनाकर कांग्रेस ने महाराष्ट्र का ध्यान पहले ही रख लिया है। यहां से एनसीपी के राज्यसभा सांसद तारिक अनवर को मंत्रिमंडल में शामिल किया गया है। वहीं झारखंड से सुबोधकांत सहाय के इस्तीफे के बाद वहां से भी किसी भी नेता को शामिल नहीं किया समझ से परे है।
बहरहाल, इस मंत्रिमंडल विस्तार में कुछ लोगों का कद काफी बढ़ा है। इनमें सबसे ज्यादा महत्व सलमान खुर्शीद को मिला है। हलांकि सलमान खुर्शीद पर जिस तरह से भ्रष्टाचार के आरोप लगे हैं, उससे उनकी छवि खराब हुई है। इसके बावजूद कांग्रेस ने उन्हें विदेश मंत्रालय का अहम विभाग सौंपा है। इससे सरकार ने सलमान खुर्शीद पर अरविंद केजरीवाल के आरोपों को सिरे से खारिज करने का संकेत दिया है। वहीं पल्लम राजू को कैबिनेट में मानव संसाधन विकास मंत्रालय का अहम पद भी आंध्रप्रदेश को अहमियत देने की वजह से मिला है। दूसरी तरफ जयपाल रेड्डी के विभाग बदला जाना कुछ पच नहीं रहा है। वहीं कुछ मंत्रियों को उनकी जिम्मेदारी से मुक्त किए जाने पर भी सवाल जरूर उठ रहे हैं।
गौरतलब है कि जिस तरह मंत्रियों से इस्तीफे लिए गए उसका कारण पार्टी में काम करना नहीं बल्कि अलग कारणों से इस्तीफा लिया गया था। इसलिए मंत्रिमंडल में इस फेरबदल को कामराज योजना से तुलना नहीं की जा सकती। लेकिन मंत्रिमंडल मंे हुए इस फेरबदल से यह स्पष्ट है कि कांग्रेस लोकसभा चुनावों की तैयारी में जुट गई है।  क्योंकि इन बदलावों से सरकार के कामकाज पर कोई खास असर नहीं पड़ने वाला है। ये मंत्री अपने कामकाज से अपनी सरकार की छवि को सुधार पाएंगे, यह इतने कम समय में संभव नहीं दिखता। क्योंकि जबतक वे अपने काम को समझेंगे तबतक चुनाव का समय आ जाएगा। ऐसे में ये मंत्री इतने कम दिनों में क्या कर पाते हैं यह देखने वाली बात होगी।
बहरहाल मनमोहन कैबिनेट में शामिल मंत्री अपने इलाके और प्रदेशों में पार्टी को कितना फायदा पहुंचाएंगे यह देखने वाली बात होगी। यूपीए 2 का आखिरी फेरबदल कांग्रेस को आगामी लोकसभा चुनाव में कितना फायदेमंद होगा यह तो आने वाला समय ही बताएगा।

आंध्र, प. बंगाल और पंजाब को खास तरजीह
मनमोहन सरकार ने अपने में फेरबदल आगामी लोकसभा चुनाव को ध्यान में रखकर किया है। 2009 में जिन-जिन राज्यों में कांग्रेस को सफलता मिली उन-उन राज्यों पर कांग्रेस विशेष ध्यान दे रही है। इसलिए इस फेरबदल में तीन राज्यों का खास ख्याल किया गया है। वे हैं- आंध्र प्रदेश, पंजाब और पश्चिम बंगाल। इस फेरबदल में आध्र प्रदेश से सबसे अधिक 6 और पंजाब व पश्चिम बंगाल सेे 3-3 लोगों को जगह दी है।
आंध्र प्रदेश से चिरंजीवी, केजय सूर्य प्रकाश रेड्डी, एस सत्यनाराण, बलराम नायक, डॉ कृपारानी किल्ली को पहली बार मंत्रिमंडल में शामिल किया गया है। वहीं एमएम पल्लम राजू को प्रमोट कर मानव संसाधन मंत्री बनाया गया है। कहने की आवश्यकता नहीं है कि 2009 में आंध्र प्रदेश में कांग्रेस की सफलता के पीछे वाईएस राजशेखर रेड्डी का हाथ था। लेकिन उनके गुजरने के बाद उनके बेटे जगनमोहन रेड्डी से कांग्रेस ने किनारा कर लिया। हाल के उपचुनावों में जिस तरह जगनमोहन रेड्डी को सफलता मिली है उससे कांग्रेस नेतृत्व सकते में हैं। यही वजह है कि इस मंत्रिमंडल में आंध्र प्रदेश से सबसे अधिक लोगों को शामिल किया गया है। वैसे इनमें से एक भी नाम ऐसा नहीं है तो कांग्रेस को जगनमोहन के मुकाबले में खड़ा कर पाएगी। जिन लोगों को मंत्रिमंडल में शामिल किया गया है उसके विरोध वहां कई सांसदों ने इस्तीफा भी दे दिया है। चिरंजीवी सिने कलाकार हैं वे कांग्रेस का कितना भला करेंगे यह तो समय ही बताएगा।
वहीं पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी के धुर विरोधी माने जाने वाले तीन कांग्रेसियों को केंद्र में मंत्री बनाए जाने से कांग्रेस को सांगठनिक फायदा होता जान पड़ता है। पश्चिम बंगाल से एएच खान चौधरी, अधीर रंजन चौधरी और दीपा दास मुंशी को मंत्रिमंडल में पहली बार शामिल किया गया है। हालांकि तीनों को राज्य मंत्री बनाया गया है लेकिन प. बंगाल में चल रही योजनाओं के मामले उन्हें निर्णय लेने की पूरी छूट होगी। रेल परियोजनाओं को लेकर प. बंगाल में ममता बनर्जी से अधीर रंजन चौधरी का कई बार टकराव हो चुका है। अब रेल राज्य मंत्री बनते ही अधीर रंजन ने अनुत्पादक परियोजनाओं को रद्द करने का ऐलान किया है। बंगाल में मालदा, मुर्शिदाबाद और दिनाजपुर जिले को कांग्रेस का गढ़ माना जाता है। इन जिलों से सटे  जिलों में कांग्रेस को फायदा मिल सकता है। और बंगाल में कांग्रेस का पुनरुद्धार हो सकता है।
दूसरी तरफ पंजाब में हिंदू मतदाता को ध्यान में रखकर ही पवन बंसल, अश्विनी कुमार और मनीष तिवारी को मंत्रिमंडल में प्रमुखता दिया गया है। पंजाब में हिंदू या तो कांगेस के साथ होता है या भाजपा के साथ होता है। कांग्रेस ने यह दांव इसलिए खेला है क्योंकि सुखबीर सिंह बादल ने सिख और हिंदू मतदाता को अपने पाले में कर लिया है। पंजाब में बिना हिंदुओं के समर्थन के सरकार बनाना मुश्किल है। यह बात अब कांग्रेस के भी समझ में आ गई है। इसलिए वह पंजाब में 2014 के लोकसभा चुनाव को ध्यान में रखते हुए पवन बंसल, अश्विनी कुमार और मनीष तिवारी जैसे हिंदू नेताओं को प्रमोट किया है। पवन बंसल और अश्विनी कुमार को पदोन्नत किया गया है तो मनीष तिवारी को राज्य मंत्री का स्वतंत्र प्रभार देते हुए सूचना एवं प्रसारण मंत्री बनाया गया है।

प्रत्येक महीने 70 किसान करते हैं आत्महत्या

संजीव कुमार

देशभर में प्रत्येक महीने 70 से अधिक किसान आत्महत्या कर रहे हैं, जबकि आज भी 1.25 लाख किसान परिवार सूदखोरों के चंगुल में फंसे हुए हैं। सूचना के अधिकार कानून के जरिए यह बात सामने आई है।

 

भारत में 2008 से 2011 के बीच 3,340 किसानों ने आत्महत्या की है। इसका मतलब यह है कि देशभर में प्रत्येक महीने 70 से अधिक किसान आत्महत्या कर रहे हैं। सूचना के अधिकार कानून के तहत कृषि मंत्रालय के कृषि एवं सहकारिता विभाग ने यह जानकारी दी है। मंत्रालय से मिली जानकारी के अनुसार, इस दौरान सबसे अधिक महाराष्ट्र में 1,862 किसानों ने आत्महत्या की है, जबकि आंध्र प्रदेश में 1,065 किसानों ने आत्महत्या की। तो कर्नाटक में इस अवधि में 371 किसानों ने आत्महत्या की। वहीं पंजाब में इस दौरान 31 किसानों ने आत्महत्या की है। केरल में यह आंकड़ा 11 का है। गौरतलब है कि इन किसानों ने सूदखोरों के कर्ज से तंग आकर मौत को गले लगाया है।
देशभर में 2008 से 2011 के बीच 3,340 किसानों ने आत्महत्या की है। इसका मतलब यह है कि देशभर में प्रत्येक महीने 70 से अधिक किसान आत्महत्या कर रहे हैं। इस दौरान सबसे अधिक महाराष्ट्र में 1,862 किसानों ने आत्महत्या की है, जबकि आंध्र प्रदेश में 1,065 किसानों ने आत्महत्या की है।
सूचना के अधिकार से यह जानकारी भी मिली है कि देशभर में सबसे अधिक कर्ज किसानों ने सूदखोरों से ही लिया है। यह जानकारी नेशनल सेम्पल सर्वे संगठन(एनएसएसओ) ने दी है। एनएसएसओ से मिली जानकारी के अनुसार, देश में किसानों के 1,25,000 परिवारों ने सूदखोरों एवं महाजनों से कर्ज लिया है, जबकि 53,902 किसान परिवारों ने व्यापारियों से कर्ज लिया। बैंकों से कर्ज लेने वाले किसान परिवारों की संख्या 1,17,100 है, जबकि को-ऑपरेटिव सोसाइटी से 1,14,785 किसान परिवारों ने कर्ज लिया है। सरकार से 14,769 किसान परिवारों ने और रिश्तेदारों एवं मित्रों से 77,602 किसान परिवारों ने कर्ज लिया है। आरटीआई कार्यकर्ता गोपाल प्रसाद ने सूचना के अधिकार के तहत 2007-12 के दौरान भारत में किसानों की मौतों का क्षेत्रवार ब्यौरा मांगा था। साथ ही उन किसानों की संख्या के बारे में भी जानकारी मांगी थी जिन्होंने सूदखोरों से कर्ज लिया था।
राष्ट्रीय क्राइम रिकार्ड ब्यूरो के मुताबिक, 2011 में देश भर में 14 हजार 27 किसानों ने आत्महत्या की है। वहीं 1995 से अबतक देश में आत्महत्या करने वाले किसानों की संख्या दो लाख 70 हजार 940 पर पहुंच गई है। पिछले एक दशक से देश भर में किसानों की आत्महत्या के मामले में पांच राज्य शीर्ष पर बने हुए हैं। इनमें महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़ व मध्य प्रदेश शामिल हैं। 2011 में भी पूरे देश में किसानों द्वारा की गई आत्महत्याओं का 64 फीसदी इन्ही पांच राज्यों में ही रहा।
यह विडंबना ही है कि केंद्र व राज्य सरकार के अनेकानेक दावों के बावजूद आज भी कर्ज के बोझ तले दबे किसान आत्महत्या को मजबूर हैं। और यह सिलसिला बदस्तूर जारी है। दूसरी तरफ सरकार के दावे हवा में ही झूल रहे हैं।
इन आत्महत्याओं को देखकर तो ऐसा ही लगता है कि सरकार किसानों के प्रति पूरी तरह उदासीन है। हमारी सरकार को तो सिर्फ कॉरपोरेट घरानों की ही चिंता है। यदि सरकार थोड़ी-बहुत चिंता हमारे किसान भाइयों की भी करते तो यह दिन हमें देखना न पड़ता।
विशेषज्ञों की मानें तो किसानों के लिए सिर्फ योजनाएं बनाने से नहीं होगा बल्कि उन योजनाओं का लाभ उन किसानों को मिल रहा है या नहीं इस पर भी ध्यान देने की जरूरत है। इस बाबत कृषि मामलों के जानकार देवेन्द्र शर्मा का कहना है कि ‘‘यदि किसानों को सही समय और उचित मूल्य पर खेती के लिए खाद, बीज और अन्य उर्वरक मिल जाए तो किसानों को आत्महत्या करने की नौबत नहीं आएगी। साथ ही सरकार ऐसी व्यवस्था करे जिससे हमारे किसानों को स्थानीय सूदखोरों की चंगुल में फंसना न पड़े।’’
वर्ष 2011 में आत्महत्या करने वाले किसान
राज्य         आत्महत्याएं
महाराष्ट्र    3,337       
आंध्र प्रदेश    2,206       
कर्नाटक     2,100       
मध्य प्रदेश    1,326       
पश्चिम बंगाल    807       
उत्तर प्रदेश    645       
गुजरात    578       
हरियाणा    384       
पंजाब        98
झारखंड    94
बिहार        83       
हिमाचल प्रदेश    46       
उत्तराखंड    25
(सभी आंकड़े राष्ट्रीय क्राइम रिकार्ड ब्यूरो के अनुसार)


 

गुरुवार, 25 अक्तूबर 2012

ऐतिहासिक नगरी आगरा


आगरा एक ऐतिहासिक नगर है। यहां आप किसी भी मौसम में जाएं यहां की खूबसूरती आपको आकर्षित करेगी। आगरा का इतिहास मुख्यतः मुगल काल से मिलता है। पौराणिक मान्यता के अनुसार, इसका संबंध महर्षि अंगिरा से है। वैसे आगरा का जिक्र पहली बार महाभारत में मिलता है, जहां इसे ‘अग्रवाण’ या ‘अग्रवन’ कहा जाता था। ऐसा कहा जाता है कि पहले यह ‘आयग्रह’ नगर के नाम से भी जाना जाता था। आगरा की ऐतिहासिकता इसके कण-कण में समाई हुई। अगर आप मुगल काल के इतिहास से बातें करना चाहते हैं, वहां ऐतिहासिक स्थलों का भ्रमण कर उसकी वास्तुकला से रु-ब-रु होना चाहते हैं, दुनिया के सात अजूबों में से एक ताजमहल की खूबसूरती निहारना चाहते हैं और ऊंट की सवारी करना चाहते हैं तो आगरा जरूर घूमिए। सीतामढ़ी के निवासी संजीव कुमार जो ‘प्रथम प्रवक्ता’ पत्रिका के विशेष संवाददाता हैं। वे हाल ही में ऐतिहासिक नगरी आगरा की सैर कर लौटे हैं। पेश है उनके यात्रा की कहानी उन्हीं की जुबानी... 

यात्रा करना और घूमना मुझे बहुत पसंद है। अब तक तो मैं कई जगहों की यात्राएं कर चुका हूं लेकिन अपनी शादी के बाद आगरा घूमना अविस्मरणीय अनुभव था। मुगल सम्राट सिकंदर लोदी ने 1506 ई. में यमुना नदी के तट पर आगरा शहर बसाया। आज यह कई खूबसूरत ऐतिहासिक धरोहरों के लिए जाना जाता है। लेकिन प्रसिद्ध तो यह विश्व के सात अजूबों में से एक ताज महल के लिए ही है। यही वजह है कि ताज महल के बारे में प्रसिद्ध शायर साहिर लुधियानवी ने लिखा है-
‘‘ये चमनज़ार, ये जमुना का किनारा ये महल
ये मुनक़्क़श, दर-ओ-दीवार, ये महराब ये ताक़।
इक शहंशाह ने दौलत का सहारा ले कर,
हम ग़रीबों की मुहब्बत का उड़ाया है म़ज़ाक।’’  
साहिर ने भले ही अपने इस नज्म में ताजमहल को गरीबों के मुहब्बत का मजाक बताया हो लेकिन इसमें किसी को संदेह नहीं है कि यह शाहजहां के प्रेम की निशानी है। जिसे शाहजहां ने अपने प्रिय बेगम मुमताज महल की याद में बनवाया था। इसके अलावा आगरे का किला और फतेहपुर सीकरी की इमारतें विश्व की सांस्कृतिक धरोहर स्थल की सूची में शामिल हैं।
ऐसे ऐतिहासिक धरोहरों को पास से देखने, उसे महसूस करने और उससे बातें करने में जो आनंद आता है वह दुर्लभ है। वैसे यहां जून-जुलाई (गर्मी के महीने) को छोड़कर किसी भी महीने में जाया जा सकता है। अगर फरवरी महीने में घूमने का प्रोग्राम बना रहे हैं तो 18-27 फरवरी के दौरान जाने का कार्यक्रम बनाएं। क्योंकि इन दिनों वहां ताज महोत्सव होता है। वैसे हमारा जाना मई के तीसरे हफ्ते में हुआ था। अगर आप रेल मार्ग से आगरा जाना चाहते हैं तो वहां का सबसे नजदीकी रेलवे स्टेशन आगरा कैंट है। मुझे रेल से सफर करना अच्छा लगता है इसलिए हमने पटना से दिल्ली के लिए ट्रेन पकड़ी। अगले दिन सुबह हम दिल्ली पहुंचे। वहां एक रिश्तेदार के यहां हमलोग ठहरे। वहां से हमलोगों ने भाड़े पर टैक्सी लिया। अगला दिन शुक्रवार था। और हमें यह पता था कि शुक्रवार को ताजमहल बंद रहता है इसलिए हमलोगों ने उस दिन मथुरा और वृंदावन घूमने का निश्चय किया। हमारी यात्रा टैक्सी से सुबह 6 बजे शुरू हुई। सुबह-सुबह यात्रा करना अच्छा लग रहा था। सुबह-सुबह लोगों को जगकर अपने काम के लिए तैयार होते और जाते हुए देखना अच्छा लग रहा था। यात्रा के बीच में हमलोगों एक ढ़ाबे पर चाय पी। वहां चाय मिट्टी के कुल्हड़ में मिल रही थी। मुझे बहुत दिनों बाद कुल्हड़ में चाय पीने को मिला। लेकिन उस चाय को पीने में जो आनंद आया वह दुर्लभ था। चाय पीने के बाद हमलोग फिर अपनी टैक्सी से मथुरा के लिए चल पड़े।
सुबह 10 बजे हमलोग पौराणिक नगरी मथुरा पहुंचे। वहां हमलोगों ने इंटरनेशनल गेस्ट हाउस में एक रूम पहले से ही बुक करवा रखा था। रूम में सामान रखने के बाद सबसे पहले हमलोगों कृष्ण जन्मभूमि देखा। जिस कृष्ण को सिर्फ पौराणिक ग्रंथ के माध्यम से जानता था उसे हमलोगों ने उनकी जन्मभूमि देखकर महसूस किया। उसके बाद हमने कालिया दह देखा भगवान कृष्ण ने सर्पराज कालिया नाग को वंश में किया था। उसके बाद हमने उस यमुना किनारे के कदंब के पेड़ को देखा जिस पर बैठकर कृष्ण बांसुरी बजाते थे। फिर चिर घाट होते हुए कृष्णा की लीला भूमि सेवाकुंज पहुंचे। ऐसी मान्यता है कि वृंदावन में यही वह निधि वन है जहां कृष्ण राधा रानी और गोपियों के रास रचाते थे। यहां यह भी सुनने को मिला कि कृष्ण आज भी यहां रात्रि में रास लीला करते हैं। लेकिन जो कोई इस लीला को देखने की चेष्टा करते वह कुछ भी बताने लायक नहीं रहता। इस बात पर आश्चर्य करते हुए ईश्वर की महिमा का गुनगान और राधा-कृष्ण के अलौकिक प्रेम को स्मरण करते हुए अंत में बांके बिहारी का दर्शन किया। रात्रि विश्राम अपने होटल में किया।
अगले दिन सुबह 6 बजे आगरा के लिए निकला। 8 बजे ऐतिहासिक नगरी आगरा पहुंचा। नास्ता करने के बाद सुबह-सुबह ही हमलोग ताजमहल देखने पहुंचे। ताजमहल में प्रवेश करने से पहले ही इसके भव्यता का अंदाजा हमलोगों को होने लगा। ताज को एक लालबलुआ पत्थर के चबूतरे पर बने श्वेत संगमर्मर के चबूतरे पर बनाया गया है। इसे फारसी वास्तुकार उस्ताद ईसा खां के निर्देशन में यमुना किनारे बनाया गया। इसे बनाने में लगभग 20 हजार मजदूरों का अथक परिश्रम और लगभग 22 वर्षों(1630-52) का समय लगा। यहां मुगल शैली के चार बाग भी हैं जो ताजमहल को और अधिक संुदर बनाते हैं। इसके मुख्य द्वार पर कुरआन की आयतें खुदी हुई हैं। उसके ऊपर बाइस छोटे गुंबद हैं, जो कि इसके निर्माण के वर्षों की संख्या बताते हैं। लेकिन ताज की सुंदरता, इसके इमारत के बराबर ऊंचे महान गुंबद में बसी है। यह 60 फीट व्यास का, 80 फीट ऊंचा है। इसी के नीचे मुमताज की कब्र है। इसके बराबर में ही शाहजहां का भी कब्र है। ताजमहल के अंदरूनी भाग में रत्नों व बहुमूल्य पत्थरों का काम मुगल स्थापत्य कला से हमें रूबरू कराता  है। ताजमहल के पिछवाड़े बहती यमुना नदी हालांकि अब स्वच्छ नहीं है फिर भी मनोरम और सुंदर दिखती है।
उसके बाद हमलोग आगरे का किला देखने गए। इसे कभी आगरे का लाल किला भी कहा जाता था। आगरा के किले से भी ताजमहल को देखा जा सकता है। यहां से शाहजहां अपने जीवन के अंतिम आठ वर्षों में (अपने पुत्र औरंगजेब द्वारा कैद किए जाने के बाद) ताजमहल को देखा करता था, जहां से यह हवा में तैरता हुआ प्रतीत होता है।  
 आगरे का किला शहर के बीचोंबीच है। इसकी बनावट अर्ध-चद्राकार है जिसे अकबर ने 1565 में बनवाया था। बाद में शाहजहां ने इस किले का पुनरूद्धार लाल बलुआ पत्थर से करवाया। और इसे किले से महल के रूप में बदला। यहां संगमर्मर पर महीन नक्काशी का कार्य किया गया है जो किले की सुंदरता में चार चांद लगाता है। इस किले की मुख्य इमारतों में मोती मस्जिद, दीवान-ए-आम, दीवान-ए-खास, जहांगीर महल, खास महल, शीश महल एवं मुसम्मन बुर्ज आते हैं। हर महल अपने आप में इतिहास की स्मृतियों को समेटे हुए है। इस किले की पूरी परिधि है 2.4 किलोमीटर है, जो दोहरे परकोटे वाली चारदीवारी से घिरी है। इस दीवार में छोटे अंतरालों पर बुर्जियां हैं। इस दीवार को एक 9 मीटर चौड़ी व 10 मीटर गहरी खाई घेरे हुए है।
रात्रि को होटल में विश्राम किया और अगले दिन सुबह फतेपुर सीकरी देखने निकला। यह आगरा से 35 किलोमीटर दूर है। इसे मुगल सम्राट अकबर ने बसाया था। यहां कई भव्य इमारतें जो हमारे स्वर्णिम इतिहास से हमें रूबरू कराता है। यहां का बुलंद दरवाजा, एक वैश्विक धरोहर है। यह बुलंद दरवाजा मुगल सम्राट अबकर ने बनवाया था। यह लाल और बलुआ पत्थर से बना है। और इसे काले और सफेद संगमर्मर की नक्कासी से सजाया गया है। इसके अलावा कई अन्य दर्शनीय स्थल भी है जहां इतिहास के पन्नों को पलटा जा सकता है। इसी दिन हमें दिल्ली के लिए लौटना पड़ा। लौटते वक्त हमें अलौकिक प्रेम की नगरी से लौकिक प्रेम की नगरी तक की यात्रा करना इस यात्रा को अविस्मणीय बना दिया।

क्विक व्यू
पटना से आगरा (उत्तर प्रदेश) की दूरी लगभग 884 किलोमीटर है।
कैसे पहुंचें
पटना से आगरा आप ट्रेन से भी जा सकते हैं। पटना जंक्शन से पटना-मथुरा एक्सप्रेस 11.50 बजे है। यहां का नजदीकी रेलवे स्टेशन आगरा कैंट है। यहां देश के किसी भी शहर से आसानी से पहुंचा जा सकता है। यहां हवाई मार्ग से भी जाया जा सकता है। आगरा से 7 किलोमीटर की दूरी पर हवाई अड्डा स्थित है। यह देश के कई प्रमुख शहरों से जुड़ा है।
कब जाएं
वैसे तो यहां कभी भी जा सकते हैं लेकिन फरवरी में जाना बढ़िया रहेगा। क्योंकि 18-27 फरवरी के दौरान ताज महोत्सव का आयोजन किया जाता है।
होटल
यहां पर्यटकों के ठहरने के लिए कई होटलें हैं। जो आपके बजट के अनुसार हो वहां ठहर सकते हैं। यहां के अच्छे होटलों में कठपुतली नृत्य एवं परंपरा के अनुसार भोजन भी परोसा जाता है। यहां अनेक पर्यटकों को स्थानीय निवासियों द्वारा बनाए गए पारंपरिक व्यंजन लुभाते हैं।
अन्य दर्शनीय स्थल
आगरे का किला, फतेहपुर सीकरी, जामा मस्जिद, बुलंद दरवाजा,  एतमादुद्दौला का मकबरा, सिकंदरा, मरियम मकबरा, चीनी का रोजा, रामबाग, दयाल बाग और मेहताब बाग आदि देखकर इतिहास के यादों को संजोया जा सकता है। यहां से मथुरा और वृंदावन भी जाया जा सकता है।